सोच नपुंसक पाँव पसारे
सोच नपुंसक पाँव पसारे
गीत ✍️उपमेंद्र सक्सेना एडवोकेट
जटिल पहेली अनसुलझी सी,लगता
जीवन।
व्याकुल कितना आज हुआ फिर,देखो यह मन।
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अपनों में जब रही न निष्ठा
लौटे कोई कैसे फिर घर
ज़हर घुले जब संबंधों में
आते आँखों में आँसू भर
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रहे साथ में मगर करें छल,अब थोथे जन
व्याकुल कितना आज हुआ फिर, देखो यह मन।
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आकर्षक अब लगे कलेवर
जगमग हुआ धरा का जेवर
समय- चक्र तो चलता रहता
रहते नहीं एक से तेवर
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छले आस्था अगर कहीं पर,रोया यौवन
व्याकुल कितना आज हुआ फिर, देखो यह मन।
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सोच नपुंसक पाँव पसारे
बैठें किसके आज सहारे
मौन बने सब देख रहे हैं
आज तमाशा घर के द्वारे
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टीस हृदय में न्याय न मिलता,बेबस है तन।
व्याकुल कितना आज हुआ फिर, देखो यह मन।
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हुआ अभावों का कोलाहल
दिखे समस्या का न कहीं हल
साधें मतलब को सब अपने
नहीं सुरक्षित लगता है कल
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बौने रिश्ते- नातों में अब,भटका बचपन।
व्याकुल कितना आज हुआ फिर, देखो यह मन।
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सच्चाई के पथ से भागे
रहे स्वार्थ में सबसे आगे
ऐसे लोगों के कारण ही
रोते कितने यहाँ अभागे
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करते गुस्सा उन्हें दिखाया,हमने दरपन
व्याकुल कितना आज हुआ फिर, देखो यह मन।
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रचनाकार -✍️उपमेंद्र सक्सेना एडवोकेट
'कुमुद- निवास'
बरेली (उत्तर प्रदेश)
मोबा.- 98379 44187
( सर्वाधिकार सुरक्षित)
Gunjan Kamal
16-Jul-2023 12:56 AM
👌👏
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Khushbu
15-Jul-2023 08:57 PM
Nice 👍🏼
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Varsha_Upadhyay
15-Jul-2023 07:22 PM
बहुत खूब
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